कैसे पुराने सिक्के बेचें

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तो आपको एक पुराना सिक्का विरासत में या संयोग से मिला है और यह मूल्यवान लगता है, लेकिन आपको नहीं पता इसे कैसे बेचें। सिक्का बेचना कोई मुश्किल काम नहीं है जब तक की आप धैर्यवान है। इससे पहले कि आप एक सिक्का बेच सकें, आपको अपने सिक्के और इसके मूल्य की पहचान करने के लिए द ऑफिसियल रैड बुक या ऑनलाइन संसाधनों का उपयोग करने की आवश्यकता है। फिर, सिक्के के डीलरों की खोज करें और उस व्यक्ति को खोजने का प्रयास करें जो नियमित रूप से उस ही प्रकार के पदार्थ के सिक्कों की बिक्री करता हो जैसा की आपके पास है और उसकी कीमत आंकता हो। अपने सिक्कों को अच्छी तरह से संभालें और आप अपने निवेश पर मिलने वाली धनराशि को बढ़ा लेगें।

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  • सिक्का डीलर और कलेक्टर शायद आपकी मदद करने में सक्षम हो सकते हैं। सिक्के के दोनों तरफ की एक स्पष्ट फोटो लें और इसे सिक्का कलेक्टरों के समूह को ऑनलाइन भेजें यदि आप सिक्के को उनके पास नहीं ले जा सकते हैं।

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  • सिक्के 70-बिंदु पैमाने पर वर्गीकृत किए गए हैं, जहां 0 "खराब" है और 70 "मिंट कंडीशन" है। "गुड" या 6 रेटेड सिक्के वास्तव में बहुत टूटे-फूटे हैं, और "फाइन" या 12-15 रेट किए गए मध्यम मात्रा में टूटे-फूटे है। [२] X रिसर्च सोर्स
  • सिक्के को साफ करने का प्रयास न करें! सिक्के ऐतिहासिक कलाकृतियां हैं और कलेक्टर उन्हें प्राकृतिक पसंद करते हैं। सफाई वास्तव में सिक्के को और नुकसान पहुंचा सकती है।

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  • सिक्के थोक मूल्य पर सूचीबद्ध हैं। जब आप अलग-अलग सिक्के बेचते हैं तो आपको उतना मूल्य नहीं मिल सकता है।

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आपके सिक्के का मूल्य कितना है, यह जानने के लिए नीलामी की निगरानी करें: सिक्का मूल्यों के बारे में अधिक जानकारी हाल ही की बिक्री की खोज करके पाई जा सकती है। हेरिटेज ऑक्शन्स जैसी साइटों से सभी प्रकार के सिक्के गुज़रते हैं। इसकी एक झलक पाने के लिए कि दूसरे उन सिक्कों के लिए कितना भुगतान कर रहे हैं वैसे ही सिक्कों कि खोज करें जैसा कि आपके पास है। [४] X रिसर्च सोर्स

इतिहास प्रैक्टिस प्रश्न

“गुप्तकालीन सिक्का शास्त्रीय कला की उत्कृष्टता का स्तर बाद के समय में नितांत दर्शनीय नहीं है” इस कथन को आप किस प्रकार सही सिद्ध करेंगे?

उत्तर :

अधिक मात्रा में सोने के सिक्के जारी करने के साथ-साथ गुप्तकालीन सिक्कों पर विविध प्रकार के रूपांकनों और अभिलेखों के उत्कीर्णन के कारण गुप्तकाल में सिक्का शास्त्रीय कला का उत्कृष्ट स्तर दिखाई देता है।

गुप्तकालीन सिक्कों पर कलात्मक उत्कृष्टता के उदाहरण:

  • कुषाणकाल के पश्चात् सर्वाधिक मात्रा में सोने के सिक्के इसी समय देखने को मिलते हैं।
  • इन सिक्कों पर विभिन्न आकृतियों का उत्कीर्णन सिक्का शास्त्रीय कला की श्रेष्ठता का महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
  • सिक्कों पर एक तरफ शासक और दूसरी ओर देवी की प्रतिमा का उत्कीर्णन इनकी प्रमुख विशेषता है।
  • सिक्कों पर राजाओं की आकृतियों को विभिन्न मुद्राओं में अंकित किया गया है, जैसे- समुद्रगुप्त को वीणा बजाते हुए और कुमारगुप्त को हाथी की सवारी करते हुए दिखाना।
  • सिक्कों को राजा और रानी द्वारा संयुक्त रूप से जारी करना भी इनकी प्रमुख विलक्षणता है, चंद्रगुप्त प्रथम, कुमारगुप्त प्रथम और स्कंदगुप्त द्वारा ‘राजा-रानी प्रकार’ के सिक्के जारी किये गए, जिसमें राजा और रानी को खड़ी मुद्रा में उत्कीर्णित किया गया है। चंद्रगुप्त के सिक्कों से उनकी रानी कुमारदेवी के नाम का भी पता चलता है।
  • लक्ष्मी, गंगा और दुर्गा आदि विभिन्न देवियों की आकृतियों के उत्कीर्णन द्वारा सिक्कों पर विविधता लाई गई है।
  • पश्चिमी भारत में मिले गुप्तकालीन सिक्कों पर हिंदू पौराणिक पक्षी गरुड़ का चित्रण है, ये सिक्के अधिकतर चाँदी के हैं।
  • समुद्रगुप्त और कुमारगुप्त प्रथम के ‘अश्वमेघ’ या ‘घोड़ों के बलिदान’ वाले सिक्के भी गुप्तकालीन विशिष्टता के उदाहरण हैं।

इस प्रकार गुप्तकालीन सिक्के अपनी कलात्मक उत्कृष्टता के कारण महत्त्वपूर्ण है। उत्कृष्टता का यह स्तर बाद के समय में लगातार दिखाई नहीं देता, जैसे-

  • गुप्तकाल के पश्चात् आर्थिक उननति का इस प्रकार का उच्च स्तर नहीं मिलता, जिसके कारण परवर्ती कालों में चाँदी, ताँबे जैसी अन्य धातुओं के सिक्के ही अधिक मिलते हैं।
  • गुप्तोत्तर काल के विभिन्न राजाओं के कम शासन अवधि व तख्तापलट के कारण सिक्कों पर आकृतियों के उत्कीर्णन में कल्पनाओं का इस प्रकार का स्तर नहीं दिखाई देता।
  • दक्षिण भारत के राजाओं ने अपने सिक्कों में केवल अपने शासकीय चिह्नों को ही स्थान दिया, जैसे- चोल राजाओं द्वारा बाघ एवं चालुक्यों द्वारा जंगली सुअर आदि।
  • मुस्लिम धर्म में मानवीय प्रतिरूपों के चित्रण की मनाही के कारण मुगल शासकों द्वारा अपने सिक्कों पर मानवीय प्रतिमाओं के उत्कीर्णन से बचा गया। इसके कारण सिक्कों पर रूपांकन में विविधता नहीं आ सकी।
  • ब्रिटिश भारत के सिक्के नीरस प्रकृति के थे, जिन पर एक तरफ ब्रिटिश महारानी एवं दूसरी ओर सिक्का जारी करने का वर्ष अंकित रहता था।
  • स्वतंत्रता के पश्चात् ब्रिटिश महारानी की प्रतिमा को अशोक स्तंभ और अन्य स्वदेशी चिह्नों से स्थिर सिक्कों के प्रकार प्रतिस्थापित किया गया, जिससे इनमें गुप्तकालीन सिक्कों जैसी विविधता नहीं आ पाई, जहाँ विभिन्न मुद्राओं में विभिन्न आकृतियों का अंकन किया जाता था।

अंत में, गुप्तकालीन सिक्का शास्त्रीय कला अपनी उत्कृष्टता के उच्च स्तर के कारण भारतीय सिक्का शास्त्र के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इस प्रकार की कलात्मक उत्कृष्टता का स्तर आज के समय में भी बहुत कम दिखाई देता है।

स्थिर सिक्कों के प्रकार

मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में स्थित स्याही कारख़ाना, बैंक नोट मुद्रणालय, देवास; चलार्थ पत्र (करेंसी नोटों) मुद्रणालय के मुद्रण तथा प्रतिभूति स्याही के निर्माण में कार्यरत है। यह भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के पूर्ण स्वामित्वधीन वाली एक सार्वजनिक क्षेत्रक उपक्रम, भारत प्रतिभूति मुद्रण तथा मुद्रा निर्माण निगम लिमिटेड (एसपीएमसीआईएल के अधीन एक इकाई है। स्याही कारखाने की स्थापना वर्ष 1974 में की गई थी। प्रारंभ में यहाँ के मुख्य उत्पादों में ड्राई ऑफसेट स्याही, लेटरप्रेस और ग्रेवयूर स्याही आदि शामिल थे। समय के साथ कारखाने के वैज्ञानिकों ने अपने अथक प्रयासों से विभिन्न प्रतिभूति उत्पादों में प्रयोग होने वाली विभिन्न प्रकार की स्याही को विकसित किया है।

पासपोर्ट, वीज़ा, डाक टिकटों, डाक संबंधी स्टेशनरी, बैंक दस्तावेजों, प्रमाण-पत्रों आदि के लिए स्याही का निर्माण स्याही कारखाने में किया जाता हैं जिसकी आपूर्ति विभिन्न प्रतिभूति मुद्रणालयों जैसे भारत प्रतिभूति मुद्रणालय, चलार्थ पत्र मुद्रणालय एवं प्रतिभूति मुद्रण मुद्रणालयों में की जाती हैं। स्याही कारखाने की कुछ महत्तव्पूर्ण उपलब्धियों का उल्लेख करे तो सभी स्याहियों के निर्माण हेतु आंतरिक विकास, स्याही, नंबरिंग स्याही, अदृश्य स्याही, द्विध्रुवीय(बाई फ्लूअरेसन्ट) स्याही, अवरक्त संवेदनशील स्याही, पारंपरिक इंटाग्लियो स्याही और सबसे महत्वपूर्ण क्विकसेट इंटाग्लियो स्याही है।

पूर्व में बैंक नोट मुद्रणालय, देवास एवं इसके साथ हि अन्य करेंसी/चलार्थ पत्र मुद्रणालयों में क्विकसेट इंटाग्लियो स्याही की आपूर्ति विदेश से की जाती थी। वर्ष 2006 में स्याही कारखानें ने क्विकसेट इंटाग्लियो स्याही को आंतरिक रूप से विकसित करने के लिए चुनौती को स्वीकार किया। कारखाने के वैज्ञानिकों के द्वारा विभिन्न अनुसंधान एवं विकास से संबन्धित प्रयास किए गए। वर्ष 2009-10 में स्याही का व्यावसायिक तौर पर उत्पादन किया गया।

प्रारंभ में स्याही कारखाने की स्थापना 240 मेट्रिक टन विभिन्न स्याहियों के निर्माण के लिए की गई थी। बैंक नोटों की बढ़ती मांग को देखते हुए स्याही कारखाने के समांतर विस्तार की आवश्यकताओं को पहचाना गया एवं एसपीएमसीआईएल निगम मुख्यालय तथा वित्त मंत्रालय ने नई स्याही कारखाने के निर्माण एव 1500 मेट्रिक टन विभिन्न स्याहियों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए नई मशीनों एवं अन्य सहायक उपस्करों के संबंध में निर्णय लिया गया। स्याही कारख़ाना बैंक नोट मुद्रणालय, चलार्थ पत्र मुद्रणालय, भारत प्रतिभूति मुद्रणालय तथा प्रतिभूति मुद्रण मुद्रणालय को उनकी कुल मांग के हिसाब से ओवीआई/सीएसआई स्याही के अलावा सभी स्याहियों की आपूर्ति की जाती हैं। स्याही के अतिरिक्त उत्पादन को स्थिर सिक्कों के प्रकार बीआरबीएनएमपीएल के मैसूर और शालबनी स्थित मुद्रणालयों में नियमित रूप से भेजा जाता हैं। एक बार पुराने संयंत्र एवं मशीनों के नए संयंत्र में सम्मिलित होने के पश्चात तथा इसके पूर्ण रूप से प्रचालन के उपरांत स्याही कारखाने के उत्पादन की क्षमता 1500 मेट्रिक टन प्रतिवर्ष तक बढ़ जाएगी।

हिमालय में प्रसारित प्रथम मुद्रायें हैं कुणिंद सिक्के

अल्मोड़ा का राजकीय संग्रहालय अपनी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहरों के कारण इतिहासविदों, मुद्रा शास्त्रियों एवं पर्यटकों का आकर्षण बना हुआ है। यहां प्रदर्शित दुर्लभ कुणिन्द मुद्रायें केवल अल्मोड़ा, शिमला (हिंमाचल प्रदेश) तथा ब्रिटिश म्यूजियम में ही हैं। प्रारम्भ में कुणिन्दों की मुद्रायें केवल अल्मोड़ा जनपद से प्राप्त हुई थीं इस कारण इन मुद्राओं को अल्मोड़ा सिक्कों का नाम दिया गया है। इन पर शोध करने के लिए भारी संख्या में शोधार्थी अल्मोड़ा संग्र्हालय आते है।

कुणिंद उत्तर भारत का एक प्रख्यात एवं शक्तिशाली प्राचीन जनजातीय समूह था जिसने दूसरी शती ई.पूर्व से तीसरी शती ई0 के बीच मध्य हिमालय में वर्तमान के उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश में कुलु कांगड़ा तक अपना सशक्त गण शासन स्थापित किया था। कुछ विद्वान इन्हें शुंग शासकों की ही एक शाखा मानते है। हिमांचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में आज भी इनके शासन के अनेक साक्ष्य मिलते हैं। कुणिन्दों का शासन काफी विस्तृत था और उनके कई सौ कुल थे। महाभारत में उल्लेख है कि उन्होंने युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ के समय पिप्पीलिका सुवर्ण भेंट किया था। कुणिदों का उल्लेख रामायण और पुराणों में भी हुआ है। वराहमिहिर के कथनानुसार के उत्तरपूर्व के निवासी थे। प्राचीन साहित्यिक सूत्रों के अनुसार ये लोग हिमालय के पंजाब और उत्तर प्रदेश से सटे हिस्से में रहते थे। कुमायूँ और गढ़वाल का क्षेत्र इनके अधिकार में था। कहा तो यह भी जाता है कि कुलिन्द जनपद का ही नाम स्त्रुध्न भी था।

अनेक विद्वान मानते है कि शक्तिशाली कुषाणों को पराजित करने में भी कुणिन्द शासकों का भारी योगदान था। ह्वेनसांग का स्त्रुध्न कुणिन्दों के राज्य का केन्द्र था तथा पूर्व मे गौतम बुद्ध ने यहां आकर उपदेश भी दिया था यह स्थान देहरादून के पास कालसी नामक स्थान पर था। टिहरी जनपद के रानीहाट से प्रमाण मिले हैं कि कुणिन्दों के शासन में वर्तमान उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश र्में इंटो से भवन निर्माण के विधिवत परम्परा की स्थापना हो चुकी थी तथा वे कुम्हारों के चाक पर बर्तन बनाना जानते थे। उन्होनं अश्वमेध यज्ञ को भी सम्पन्न कराया था।

अल्मोड़ा संग्रहालय में कुणिन्दों के 15 सिक्के है। ये सिक्के तत्कालीन अल्मोड़ा जिले की कत्यूर घाटी से 1979 में प्राप्त हुए । कत्यूर घाटी से प्राप्त इन सिक्कों को संग्रहालय के लिए मोहन सिंह गड़िया ने दिया था। जिन्हें सरकारी औपचारिकतायें पूरी कर 1981 में संग्रहालय में लाया गया। ये सभी सिक्के सीसा मिश्रित तांबे के बने हुए हैं। राजकीय संग्रहालय के पास अन्य मुद्राओं का भी बेशकीमती भंडार है। कुणिन्द सिक्कों को फिलहाल यौधेय, पांचाल गुप्त तथा कुषाण सिक्कों के साथ प्रदर्शित किया गया है। अल्मोड़ा सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि का प्रयोग हुआ है। इन सिक्कों का आकार और रूप कुषाण और इंडो ग्रीक सिक्कों जैसा ही है। कुणिन्द गणराज्य के जो सिक्के मिले हैं उनसे ज्ञात होता है कि वे लोग अपना शासन भगवान् चित्रेश्वर (शिव) के नाम पर करते थे। रानीबाग काठगोदाम में चित्रेश्वर कुमाऊँ में चित्रशिला नामक स्थान में आज भी विद्यमान हैं। जहां जिया रानी के सम्मान मे प्रतिवर्ष मेला लगता है। जान पड़ता है कि इस गणतंत्रीय राज्य ने बाद में राजतंत्र का रूप धारण कर लिया था। कुणिदों के स्थिर सिक्कों के प्रकार अधिकतर सिक्के प्रथम शासक अमोघभूती के नाम पर हैं जिनपर उसके लिए शीर्षक महाराज उत्कीर्ण किया गया है। साक्ष्य बताते हैं कि इस तरह के सिक्के उनके मरणोपरान्त भी उपयोग में लाए जाते रहे। कुछ सिक्कों में शिव प्रतीकों को भी प्रदर्शित किया गया है। सिक्कों पर खरोष्टी लिपि का भी प्रयोग हुआ है। ब्रिटिश म्यूजियम में रखे अल्मोड़ा सिक्कों में धातु के रूप में चांदी,तांबा तथा मिश्र धातु के रूप में सीसा भी प्रयोग हुआ है।

कुणिन्दों के सिक्कों के बारे में कहा जाता है कि यह किसी भी शासन तंत्र द्वारा हिमालय में प्रसारित की गई प्रथम मुद्रायें हैं। कुणिन्दों के तीन तरह के सिक्के हिमालय में पाए गये हैं । मुद्राशास्त्रियों ने इन्हें अमोघभूति प्रकार, अल्मोड़ा सिक्के तथा छत्रेश्वर प्रकार में विभाजित किया है। इतिहासकारों के अनुसार यह सिक्के ग्रीक साम्राज्य से प्रभावित होकर बनाए गए हैं। अल्मोड़ा सिक्के मुख्यतः चांदी तथा तांबे अथवा मिश्र धातु के बने हैं जिन पर अमोघभूति, विजयभूति, गोमित्र, हरदत्त, शिवदत्त तथा शिवपालित आदि शासकों के नाम अंकित हैं। ये सिक्के प्रथम शती ईपू से दूसरी शती ई में जारी किये गये थे। कत्यूर घाटी से प्राप्त तांबा तथा मिश्रित धातु के सिक्कों के कारण कुछ विद्वानों का मत है कि ये सिक्के स्थानीय खानों से प्राप्त तांबे से ही बनाये जाते थे। तांबे की खाने बागेश्वर जनपद खरही पट्टी तथा बिलौनासेरा में प्राचीन समय से ही मौजूद रही है।

इंदौर मुद्रा उत्सव : 2.20 लाख में बिका मुगलकाल का सिक्का

इंदौर मुद्रा उत्सव : 2.20 लाख में बिका मुगलकाल का सिक्का

इंदौर। शहर में जारी 'मुद्रा उत्सव' के दूसरे दिन शनिवार को भी सिक्कों के प्रति दीवानगी दिखी। दुर्लभ सिक्कों देखने के साथ कई मुद्रा प्रेमी मुंह मांगी कीमत पर प्राचीन सिक्कों को खरीदने के लिए भी यहां आए। आयोजन के दूसरे दिन सैकड़ों सिक्के बिके, लेकिन सबसे महंगा सिक्का 2.20 लाख में बोली लगाकर खरीदा गया। मुगलकालीन चांदी के इस सिक्के का वजन 11 ग्राम है। कार्यक्रम के दौरान परिसंवाद भी आयोजित किया गया।

मुगल शासक आलमगीर द्वितीय के शासनकाल में जारी किया गया यह सिक्का आलमजीरा बाग का था। चांदी के इस सिक्के की उस वक्त कीमत 1रुपए थी जो अब दो लाख रुपए का आंकड़ा पार कर गया। इसे शासन द्वारा मान्यता प्राप्त नीलामकर्ता कोहिनूर ऑक्शन द्वारा यहां लाया गया था।

इस नीलामी में 400 सिक्के नीलाम किए गए। इसके बाद राजगोर ऑक्शन भी हुआ। इसमें कुषाण वंश का 8 ग्राम सोने का सिक्का बिका, जिसकी कीमत 1.30 लाख रुपए आंकी गई। यह सिक्का करीब 2 हजार साल पुराना है। इस पर शिव का चतुर्भुज रूप अंकित था। उस समय इसकी कीमत 16 रुपए हुआ करती थी। इस ऑक्शन में कुल 250 सिक्के बिके।

राजा युद्ध में भी साथ ले जाते थे टकसाल

शनिवार को 'स्थिर सिक्कों के प्रकार मुद्रा एवं जनसंख्या' विषय पर परिसंवाद आयोजित किया गया। परिसंवाद में डॉ. दिलीप राजगोरा और नागपुर के प्रशांत कुलकर्णी ने मुद्राओं के चलन और उनके विनिमय से संबंधित जानकारियां बताईं।

परिसंवाद में डॉ. दिलीप राजगोरा ने वस्तु विनिमय से लेकर वर्तमान में मुद्राओं के चलन तक पर चर्चा की। उन्होंने चंद्रगुप्त के शासनकाल में मुद्राओं की स्थिति के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि उस काल में सेनापति और सामान्य कर्मचारी को मिलने वाले वेतन में तो अंतर था ही, पर यह अंतर मुद्राओं की धातु और उनकी संख्या में भी हुआ करता था। सेनापति को 15 हजार कार्षपर्ण दिए जाते थे, जबकि सामान्य कर्मचारी को 1 माशक ही मिलता था। कार्षपर्ण मुद्राएं कॉपर की बनती थी जबकि माशक मुद्रा चांदी से बनाई जाती थी, चांदी से बनने वाली मुद्रा का वजन महज 1 ग्राम ही होता था।

नागपुर से आए प्रशांत कुलकर्णी ने पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन से ढाई हजार साल के कालखंड में मुद्राओं के सफर पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि प्राचीनकाल में जब दो राजाओं के बीच युद्ध होता था तो मुद्राओं के आकार-प्रकार में भी परिवर्तन हो जाता था। इसके साथ ही धातुओं की विषमता भी नजर आती थी। आक्रमण करने वाले राजा अपने साथ टकसाल भी ले जाया करते थे। जिस राज्य पर आक्रमण किया जा रहा है, उसे जीत लिया तो वहीं से प्राप्त खजाने पर विजेता राजा अपनी मोहर लगवा देता था।

युद्ध व शांति की स्थिति में जो वेतन दिया जाता था उसके अनुसार भी खास तरह के सिक्के बनाए जाते थे। परिसंवाद में राजेंद्र सिंह व नवनीत महाजन ने भी विचार व्यक्त किए। आयोजक गिरीश शर्मा के बताया कि दूसरे दिन भी सिक्कों की नीलामी की गई। कार्यक्रम का संचालन डॉ. शशिकांत भट्ट ने किया।

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